बिहार का आदिवासी समाज, यहाँ शादी के जोड़े को मिलता है भगवान का दर्जा

आज कल शादी विवाह में दहेज़ को लेकर लड़की वालों की हालत ख़राब हो जाती है, लेकिन बिहार का आदिवासी समाज एक ऐसा समाज है जहाँ दहेज़ की कुरीति नहीं पायी जाती है। बिहार के इस आदिवासी समाज में शादी शुदा जोड़े को भगवान का दर्जा दिया जाता है। यहाँ पूर्वी चंपारण के थारू आदिवासियों की बात हो रही है। यह समाज आधुनिकता में किसी से पीछे नहीं है, लेकिन सोच ऐसी की ये कुरीतियों को अपने अगल-बगल भी नहीं भटकने देते हैं। इस समाज में लकड़ियों को बराबरी करने का पूरा हक़ होता है। यहाँ नारी सशक्तिकरण के बारे में बताये तो शादी के लिए वर पक्ष शादी का प्रस्ताव लेकर कन्या के यहां जाता है। पसंद आने पर पांच रुपये और एक धोती के नेग पर शादी हो जाती है। दहेज़ की कुरीति यहाँ पायी ही नहीं जाती है।
सबसे अलग है बिहार का आदिवासी समाज
जिस समाज की हम बात कर रहे हैं, वो पश्चिम चंपारण के वाल्मीकि टाइगर रिजर्व से लेकर भिखनाठोरी तक जंगल के सीमांचल में करीब तीन लाख थारू आदिवासी रहते हैं। इन आदिवासी ने आज भी अपनी संस्कृति बचाए हुए हैं। इस समाज में विवाह के लिए लड़की वालों की जगह लड़के वाले रिश्ता लेकर जाते हैं। विवाह तय कराने में गजुआ (अगुआ) की भूमिका अहम होती है। वे वर व वधू के जीजा या फूफा होते हैं। समाज में लड़कियों को बिल्कुल भी दबाया नहीं जाता है।

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यहाँ पर शादी की पूरी तैयारी गजुआ-गजुआइन (दूल्हा-दुल्हन) के द्वारा की जाती है। दूल्हा-दुल्हन को यह समुदाय भगवान् का दर्ज देता है। दहेज़ का सिलसिला होता ही नहीं यहाँ, बस वर की पूजा के समय कन्या पक्ष को सिर्फ एक धोती व पांच रुपये ही देने होते हैं। साथ ही आसपास के हर घर के लोग और नाते-रिश्तेदार सामान की जगह अनाज गिफ्ट करते हैं। इस समाज के बहुत से लोग पढ़-लिखकर आज डॉक्टर, इंजीनियर व अधिकारी बन चुके हैं। इसके बावजूद बिना दहेज के शादी करते हैं। आज की बदलती दुनिया में ये समाज जैसा हर किसी को बनना चाहिए।